यहां एक साथ महकते हैं कई मजहब

शाहदरा का ये इलाका बना सौहार्द की पहचान
शाहदरा इलाके में एक ऐसी जगह है, जहां ईश्वर, अल्लाह और वाहेगुरु का नाम एक साथ गूंजता है। यहां ईद, दिवाली और बैसाखी पर घुलने वाली सौहार्द की मिठास पूरे इलाके में घुली है। त्योहारों पर लोग मिठाई भी एक साथ खाते हैं तो सेवईयां भी। बैसाखी पर पीले चावल और गुड़ का हलवा सबका पसंदीदा है। इसकी वजह है एक ही परिसर में पड़ी मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे की नींव। दशकों से यह हिंदू, मुस्लिम और सिख समुदाय को आपस में जोड़े रखने का काम कर रही है।
तीनों धार्मिक स्थलों में मस्जिद का इतिहास सबसे पुराना 100 साल पहले का बताया जाता है। गुरुद्वारा भी आजादी से पहले का है जो कभी पाकिस्तान के बंटवारे समय श्रणार्थियों की शरणस्थली बना। जबकि मंदिर 58 साल पुराना है, भगवान शंकर का मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। पहले मंदिर वर्तमान में बने मेट्रो स्टेशन की जगह पर हुआ करता था। लेकिन, विकास कार्य के दौरान मेट्रो ने मंदिर के लिए गुरुद्वारा और मस्जिद के बराबर में जगह उपलब्ध कराई। तब से अब तक यह तीनों एक साथ खड़े होकर एकता की मिसाल को कायम कर रहे हैं।
कभी मंदिर हो आते हैं मौलवी तो मस्जिद तक चले जाते हैं पंडित जी:
तीनों धार्मिक स्थलों के लोगों में इतना प्रेमभाव है कि कभी मौलवी मंदिर तक चले जाते हैं तो कभी पंडित मस्जिद तक हो आते हैं। वहीं, विशेष मौके पर गुरुद्वारे में तीन धार्मिक स्थल के लोग एक साथ बैठकर लंगर भी छक लेते हैं। मंदिर के पंडित गणेश ने बताया कि प्रतिदिन मौलवी व सिख धर्म गुरू से दुआ सलाम होती है। कभी भी मंदिर की चौखट पर ही महफिल लग जाती है। महफिल में धर्म-जाति को छोड़ अन्य विषयों पर घंटों चर्चा गर्म रहती है। इसके अलावा यहां आने वाले श्रद्धालुओं के बच्चे भी तीनों धार्मिक स्थलों में बिना भेदभाव के खेलते हुए दिख जाएंगे। इससे अभिभावकों को भी कोई आपत्ति नहीं होती है।
दिल्ली दंगे की भी नहीं पहुंची चिंगारी
गत वर्ष उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा का भी असर इस परिसर की चौखट तक नहीं पहुंच सका। बताया जाता है कुछ बाहरी लोगों ने परिसर के आसपास माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की, लेकिन वे परिसर के भीतर बनी एकता की दीवार का नहीं हिला सके। यही वजह है कि दिल्ली दंगे के दौरान मंदिर, मस्जिद व गुरुद्वारे के लोगों ने एक दूसरे के धार्मिक स्थलों की रक्षा की।
लोगों ने कहा…
-इस परिसर में तीनों धार्मिक स्थल एक साथ खड़े हुए हैं। प्रत्येक पर्व को तीनों धर्म के लोग एक साथ मिलकर मनाते हैं। बीते वर्षों में यहां अलग-अलग धर्मों के लोगों के साथ रिश्ते और भी मजबूत हुए हैं। धर्म को लेकर कभी कोई दीवार हमारे बीच में नहीं बनी। चाय की चुस्कियों पर मस्जिद, मंदिर और गुरुद्वारे के लोग आपस में मिलकर बैठकर चर्चा करते हैं। गत वर्ष हुए दिल्ली दंगे की एक चिंगारी भी हम तक पहुंचने में असफल रही।
-पंडित गणेश चंद, पुजारी, आशुतोष मंदिर
चाहे बैसाखी हो या गुरु पर्व सभी मिलकर एक साथ रहते हैं। ईद- दिवाली से लेकर अन्य त्योहारों पर भी यहां खुशी का माहौल रहता है। लोग यहां दिवाली पर मिठाईयां भी खाते हैं तो ईद पर सेवाइयां भी खूब पसंद की जाती हैं। सिख धर्म के पर्व पर भी सभी साथ मिलकर खुशियां मनाते हैं। हालांकि, जब से कोरोना आया है तब से पहले के मुकाबले सार्वजनिक कार्यक्रमों को कम किया गया है। लेकिन, अभी भी विशेष मौके पर कोरोना नियमों का पालन कर सभी एक होते हैं।
-सरदार जीत सिंह, प्रधान, गुरुद्वारा सिंह सभा भाई मति दास
यहां प्रत्येक शनिवार गुरुद्वारे में लंगर का आयोजन किया जाता है। इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल होकर लंगर चखते हैं। लंगर में दाल, रोटी, सब्जी, दही व हलवा दिया जाता है। इस गुरुद्वारे का नाम गुरुओं के साथ शहीद हुए भाई मति दास के नाम पर है। यहां दूर दराज से श्रद्धालु माथा टेकने के लिए पहुंचते हैं। यहां आने से लोगों के दुख दर्द दूर होते हैं।
-अरविंदर सिंह वालिया, सचिव, गुरुद्वारा
गुरुद्वारा आजादी से भी पहले का है। जिस समय भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। उस समय पाकिस्तान से आए श्रणार्थी शाहदरा रेलवे स्टेशन पर आकर रूके थे। इसके बाद कुछ श्रणार्थियों ने इसी गुरुद्वारे में ही अपना डेरा जमाया था। काफी समय रहने के बाद वे धीरे-धीरे यहां से दिल्ली के अन्य स्थानों पर चले गए। शुरुआत में यह अधिक विकसित नहीं था, लेकिन समय के साथ-साथ गुरुद्वारे का विकास हुआ।
-इंद्रजीत, खजांची, गुरुद्वारा
मस्जिद का इतिहास 100 साल से भी पुराना है। वर्ष 1997 से यहां मदरसा भी चल रहा है। इसमें बच्चों को तालीम दी जा रही है। इस मस्जिद को जामा मस्जिद नाम से जाना जाता है। पुराने समय में यह मस्जिद मेरठ जिला से लगा करती थी। समय के साथ हुए सीमा बंटवारे में यह दिल्ली की सीमा में आ गई। यहां आसपास की जमीन भी मेरठ के नवाबों की हुआ करती थी। बाद में चीजें बदलती गई और मस्जिद का अस्तित्व बरकरार रहा।
-मतलूब अहमद फारूकी, अध्यक्ष, मुंतजीमा कमेटी, मस्जिद।
वर्ष 2012 से चंदा जुटाकर मस्जिद का निर्माण चल रहा है। मस्जिद में प्रतिदिन नमाजी नमाज पढ़ने के लिए पहुंचते हैं। ईद के मौके पर यहां पर नमाजियों की अच्छी खासी भीड़ होती है। परिसर के भीतर सभी धर्मों के लोग आपस में भाईचारे से रह रहे हैं। अलग समुदाय होने के बाद भी कभी भी कोई टकराव या परेशानी नहीं हुई। यहां एक साथ अल्लाह, ईश्वर और गुरु का नाम लिया जाता है।
-अफरोज आलम, इमाम, मस्जिद